मंजिल कहाँ है, मै कहाँ हूं? कही तो हूं या नही भी क्या फर्क पड़ता है। चला मंजिल की ओर पर कौन सी मंजिल? ये ना पता था.. बस चल दिया, चल दिया,बिन सोचे बिन समझे गया बहुत दूर भी, पर मंजिल तो तय न था सो भटक गया उस वीरान से मन मोहते जंगल मे, पर रास्ते की तलाश में निकल पड़ा फिर से छोटे-छोटे कदमो से पहुँच जाऊंगा मंजिल पर अब नही तो तब।